छत्रपति शिवाजी की उदारता ऐतिहासिक कहानी

Shivaji ki udarta mahanta
वीर मराठा छत्रपति शिवाजी अपने शत्रुओं को क्षमा दान देने के लिए काफी प्रसिद्ध है । ऐसी ही एक घटना है । एक बार शिवाजी अपने शयनकक्ष में सो रहे थे । रात का समय था । एक चौदह वर्ष का बालक किसी तरह छुपकर उनके शयनकक्ष में जा पहुँचा । वह शिवाजी को मारने आया था । लेकिन शिवाजी के विश्वस्त सेनापति तानाजी ने उसे पहले ही देख लिया था । लेकिन फिर भी उन्होंने उसे जाने दिया । वह जानना चाहते थे कि आखिर यह लड़का क्या करने आया है !

उस लड़के ने तलवार निकाली और शिवाजी पर चलाने ही वाला था कि पीछे से तानाजी ने उसका हाथ पकड़ लिया । इतने में शिवाजी की भी नींद टूट गई ।

उन्होंने उस बालक से पूछा कि तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो ? उस बालक ने निडरता पूर्वक बताया कि उसका नाम मालोजी है और वह शिवाजी की हत्या करने आया था ।

जब शिवाजी ने उससे कारण पूछा तो उसने बताया कि “मैं एक गरीब घर से हूँ तथा मेरी माँ कई दिनों से भूखी है । इसलिए अगर मैं आपकी हत्या कर दूँ तो आपका शत्रु सुभाग राय मुझे बहुत सारा धन देगा ।
यह सुनकर तानाजी गुस्से में बोले – “ मुर्ख बालक ! धन से लोभ से तू छत्रपति शिवाजी का वध करने आया है ! अब मरने के लिए तैयार हो जा ?”

इतने में मालोजी शिवाजी से बोला – “ महाराज ! मैंने आपका वध करने की कोशिश की अतः निसंदेह मैं दण्ड के योग्य हूँ, लेकिन कृपा करके मुझे अभी के लिए जाने दीजिये । मेरी माँ भूखी है वह जल्द ही मर जाएगी । माँ का आशीर्वाद लेकर मैं सुबह आपके सामने उपस्थित हो जाऊंगा ।”

बालक की बातें सुनकर तानाजी बोले – “ हम तेरी बातो के धोखे में आने वाले नहीं है, दुष्ट बालक !”

बालक मालोजी बोला – “ मैं एक मराठा हूँ सेनापति महोदय ! और आप बखूबी जानते हो कि मराठा कभी झूठ नहीं बोलते ।” इतना सुनकर शिवाजी ने उस बालक को जाने दिया ।

दुसरे दिन सुबह जब राजदरबार में छत्रपति शिवाजी महाराज सिंहासन पर बैठे थे । तभी द्वारपाल एक सन्देश लेकर आया कि एक बालक महाराज से मिलना चाहता है । जब उसे अन्दर बुलाया गया तो यह वही बालक था जिसे कल रात शिवाजी ने माँ का आशीर्वाद लेने जाने दिया था ।

महाराज के सामने आकर बालक बोला – “ मैं आपका अपराधी महाराज ! आपकी उदारता के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ । आप जो चाहे दण्ड दे सकते है ।”

शिवाजी ने सिंहासन से उठकर उस बालक को गले लगाते हुए कहा – “ तुम जैसे सच्चे मराठाओं को अगर मृत्यु दण्ड दे देंगे तो फिर जिन्दा किसे रखेंगे ? आजसे तुम हमारी सेना के सैनिक हो ।”

छत्रपति ने उसे बहुत सारा धन दिया तथा उसकी माँ की चिकित्सा के लिए राज वैद्य को भेजा गया ।

शिवाजी की गुरु दीक्षा और दक्षिणा

समर्थ गुरु रामदास ही छत्रपति शिवाजी के गुरु थे । वह स्वदेश और स्वराष्ट्र के प्रति अपने शिष्यों में उत्साह भरते थे । वह अक्सर शिवाजी को उपदेश दिया करते थे कि – हे शिवा ! तू बल की उपासना कर, बुद्धि को पूज, संकल्पवान् बन और चरित्र की दृढ़ता को अपने जीवन में उतार, यही तेरी ईश्वर-भक्ति है। भारतवर्ष में बढ़ रहे पाप, हिंसा, अनैतिकता और अनाचार के यवनी-कुचक्र से लोहा लेने और भगवान् की सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिये इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।”

अपने गुरुदेव के वचनों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद शिवाजी बड़ी ही विनम्रता से कहते – आज्ञा शिरोधार्य देव। किन्तु यह तो गुरु-दीक्षा हुई अब, गुरु दक्षिणा का आदेश दीजिये।”

यह सुनते ही गुरु की आंखें चमक उठीं। शिवाजी के शीश पर हाथ फेरते हुए बोले –“ गुरु-दक्षिणा में मुझे एक लाख शिवाजी चाहिये, बोल देगा?

शिवाजी दृढ़ विश्वास से कहते है –जरुर दूँगा गुरुदेव। एक वर्ष एक दिन में ही यह गुरु-दक्षिणा चुका दूँगा ।” इतना कहकर शिवाजी ने गुरुदेव की चरण धूलि ली और महाराष्ट्र के उद्धार के लिए सेना निर्माण में जुट गये।