ईर्ष्या का जहर | दो रानी की कहानी

irshya ka jahar ek raaja do rani
सुन्दर नगरी में सूर्यप्रताप नामक पराक्रमी राजा हुआ करता था । राजा सूर्यप्रताप की इकलोती रानी थी, जिसका नाम मृगनयनी था । महारानी मृगनयनी बड़ी ही सुशील, सुन्दर और स्वाभिमानी थी । महाराज सूर्यप्रताप महारानी मृगनयनी की सुन्दरता की प्रशंसा करते नहीं थकते थे ।

एक दिन अचानक एक पड़ोसी राजा ने आक्रमण कर दिया । महाराज सूर्यप्रताप सेनापति को लेकर तुरंत जवाबी हमले के लिए तैयार हो गये । दो दिन तक भयंकर युद्ध चलने के बाद आखिर जीत राजा सूर्यप्रताप की हुई । 
सूर्यप्रताप के सैनिको ने सामने वाले राजा को बंदी बना लिया और उनके महल पर कब्ज़ा कर लिया । तभी महाराज सूर्यप्रताप की नजर विद्रोही राजा की पुत्री राजकुमारी कुसुमलता पर पड़ी । पहली ही नजर में राजा सूर्यप्रताप उस पर मोहित हो गये । उन्होंने उसके आगे जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा । राजकुमारी कुसुमलता ने विवाह के लिए हाँ कह दी लेकिन अपनी एक शर्त रखी कि – “यदि आप मेरे पिता सहित सम्पूर्ण राज्य उनको वापस कर दे तो मैं आपसे विवाह कर सकती हूँ ।” राजा सूर्यप्रताप ने उसकी शर्त को स्वीकार कर लिया और इस आपसी दुश्मनी को हमेशा के लिए मित्रता में बदल लिया ।

राजा सूर्यप्रताप और राजकुमारी कुसुमलता दोनों का विवाह संपन्न हो गया । जब यह बात मृगनयनी को पता चली तो उसके पैरों से जमीन खिसक गई । फिर भी राजधर्म की मर्यादा के अनुसार उसे ही अपनी सौतन का स्वागत करना था ।

महारानी मृगनयनी ने एकांत में महाराज से इस दुसरे विवाह के बारे में पूछा तो सूर्यप्रताप ने यह कहते हुए टाल दिया कि “ बरसों से हमारे पुरखे एक से अधिक विवाह करते आये है । अगर मैंने भी कर लिया तो कोनसा पहाड़ टूट पड़ा ।” इससे आगे महारानी मृगनयनी कुछ न कह सकी । अपने दर्द को अपने ही ह्रदय में रखकर मन मसोसकर रह गई ।

जब महारानी मृगनयनी के बारे में छोटी रानी कुसुमलता को पता चला तो वह भी महाराज पर क्रुद्ध हुई । लेकिन बिना पूछे विवाह और अपने पिता को छुड़ाने का अहसान मान वह चुप रही ।

राजा सूर्यप्रताप के आगे तो दोनों रानियाँ चुप थी लेकिन मन ही मन एक दुसरे से लड़ रही थी । एक दुसरे को कोस रही थी । दोनों एक दुसरे से ठीक से बात भी नहीं करती थी । इसी आपसी द्वेष और ईर्ष्या के रहते दोनों की सुन्दरता और कोमलता जाती रही और धीरे – धीरे दोनों बीमार पड़ गई ।

दोनों रानियों के एक साथ बीमार पड़ने से महाराज बड़े चिंतित हुए । बड़े – बड़े विद्वान वैद्यो को बुलाया गया लेकिन कोई भी किसी भी रानी को ठीक नहीं कर पाया । तब परेशान होकर महाराज ने पुरे राज्य में ऐलान करवाया कि जो भी राज रानियों की बीमारी को ठीक कर देगा, उसे एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएँ इनाम में दी जाएगी । यह खबर आग की तरह पुरे राज्य में फ़ैल गई ।

तभी एक दिन एक बुढ़िया राजदरबार में उपस्थित हुई और बोली – “महाराज ! मैं आपको राज रानियों की बीमारी का उपचार बता सकती हूँ । लेकिन एकांत में !”

महाराज बुढ़िया को लेकर एकांत में गये । बुढ़िया ने कहा – “ महाराज ! मैं जो कहूँ वो आपको करना पड़ेगा ?”

मरता क्या न करता, राजा बोला – “ माई ! तू जो बोलेगी मैं करूंगा, किन्तु मेरी रानी ठीक होनी चाहिए, बस ! “

बुढ़िया बोली – “ वो अवश्य ठीक हो जाएगी । बस ऐसा ही एक महल और बना ।”

राजा आश्चर्य से बोला – “लेकिन उनकी बीमारी का महल से क्या सम्बन्ध ?”

बुढ़िया बोली – “ देख राजा ! जैसा कहती हूँ वैसा कर नहीं तो मैं चली ।”

महाराज के पास आखिरी उम्मीद थी और वो इसे गंवाना नहीं चाहते थे । अतः उन्होंने एक सप्ताह में ऐसा ही एक महल और बनवा दिया ।

अगले सप्ताह फिर बुढ़िया महल में आई तो राजा एकांत में ले जाकर बोला – “माई ! जो तुमने बोला था वो कर दिया । अब बताओ आगे क्या करना है ?”

बुढ़िया बोली – “ राजा ध्यान से सुन ! अब अपनी नयी रानी को नये महल में ले जा और कहना कि “बीमारी की वजह से बड़ी रानी का देहांत हो गया है” । इसी तरह अपनी बड़ी रानी से कहना कि “ बीमारी की वजह से छोटी रानी का देहांत हो गया है ।”

कुछ दिन के लिए इस महल के नोकर चाकर उस महल नहीं जाने चाहिए और उस महल के नोकर चाकर इस महल नहीं आने चाहिए । केवल तुम कुछ समय इस रानी के पास रहोगे तो कुछ समय उस रानी के पास रहोगे । लेकिन ध्यान रहे ! जब तक दोनों रानियाँ ठीक नहीं हो जाती, तब तक यह राज़, राज़ ही रहना चाहिए ।” इतना कहकर बुढ़िया चली ।

महाराज ने बुढ़िया के कहे अनुसार दोनों रानियों की अलग – अलग व्यवस्था करके, दोनों से अलग – अलग झूठ बोल दिया । एक दुसरे के मरने की खबर सुनकर दोनों को थोड़ा दुःख हुआ लेकिन उससे कई गुना ज्यादा ख़ुशी हुई । कुछ ही दिनों में दोनों रानियाँ स्वस्थ हो गई । इस चमत्कार को देखकर राजा अचंभित था । वह सोच – सोचकर पागल हुआ जा रहा था कि जो काम बड़े – बड़े विद्वान वैद्य नहीं कर सके, वह एक जंगली बुढ़िया के दो महल वाले साधारण से टोटके ने कर दिए ।

अगले सप्ताह जब बुढ़िया अपना इनाम लेने आई । राजदरबार में प्रवेश करते ही महाराज ने बुढ़िया से इस चमत्कार का रहस्य पूछा तो बुढ़िया बोली – “ रे राजा ! इसमें कोई चमत्कार नहीं, बस स्त्री के मन को समझने की बात है । क्योंकि मैं स्त्री हूँ इसलिए तेरी दोनों रानियों के मन की बात जान गई और उनकी बीमारी का कारण भी । जब मैंने सुना कि कोई भी वैद्य रानियों का उपचार करने में समर्थ नहीं है तो मैं समझ गई कि ईर्ष्या और द्वेष का जहर ही उनकी बीमारी है । इसलिए कोई भी वैद्य उनको ठीक नहीं कर पाया । मैंने उनकी ईर्ष्या को समाप्त करने के लिए अलग – अलग महल में रखवाकर एक दुसरे के मौत की झूठी बात कहलवाई, जिससे उनका ईर्ष्या और द्वेष खत्म हो सके । जैसे ही उनका ईर्ष्या और द्वेष खत्म हुआ । दोनों दुरुस्त हो गई ।” बुढ़िया ने अपना इनाम लिया और चलती बनी ।

अब राजा को समझ आया कि उससे कितनी बड़ी गलती हुई थी ।

खैर गलती किसकी है ? ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि गलती स्वयं है । यदि दोनों रानियाँ आपस में तालमेल बनाकर एक दुसरे का सहयोग करे, आपस में प्रेम से रहे तो कोई कारण नहीं कि वो दुखी और बीमार हो । आप और हममे से अधिकांश लोग ऐसे ही फालतू के विचारों की वजह से बीमार पड़ते है । हम उन चीजों से दुखी होते है, जिनसे दुखी होने का कोई कारण नहीं ।